कैसे सोचा होगा तुम कदम्ब का वृक्ष और मैं हूँ कोमल बेल जीवन पर्यन्त झूलती रहूँगी तुम्हारे चारो ओर तुम शांत अपनी बाँहें फैलाये इस उतावली को अपने देह से सटने दोगे और मैं चिपक के मजबूती से अपने खड़े होने का भ्रम पालती रहूँगी सर्वमान्य सत्य हो जाता है मन अवकाश लहरों के समीप तुम्हारे बालुका की प्रतिमा के समक्ष सिर झुकाए कठोर व्रत और तप के बाद तुम्हारा अर्धासन प्राप्त करुँगी हृदय में स्थान बना कर स्थूल रत्न जड़ित गहनों से अपने को सजा कर पारण से पूर्व सोने से सापिन दूध पीने से नागिन और न जाने क्या क्या हो जाउँगी कई वर्षोें तक आँखे मूँद कर भूखी प्यासी पढ़ती रही उस पोथी को जो मेरे लिए लिखी ही नहीं गई थी मैं जयकारा लगा आरती दिखा पूजा करती रही तुम्हारे जड़ेां की लपेटती रही लाल पीले धागे तुम्हारे तने से लिपटती रही तुम्हारे वक्ष से समझते रहे सब तुमको कदम का वृक्ष और मुझको कोमल बेल - पल्लवी शर्मा |